उलूक टाइम्स

शनिवार, 1 जुलाई 2017

चिट्ठाकार चिट्ठाकारी चिट्ठे और उनका अपना दिन एक जुलाई आईये अपनी अपनी मनायें


चिट्ठा 
रोज भी लिखा जाता है 

चिट्ठा 
रोज 
नहीं भी लिखा जाता है 

इतना कुछ
होता है आसपास 

एक के नीचे 
तीन 
छुपा ले जाता है 

मजबूरी है 
अखबार की भी 

सब कुछ 
सुबह लाकर 
नहीं बता पाता है 

लिखना लिखाना 
पढ़ना पढ़ाना 
एक साथ एक जगह 
होता 
देखा जाता है 

चिट्ठाकारी 
सबसे बड़ी है 
कलाकारी 

हर कलाकार 
के 
पास होता है 
पर्दा खुद का 

खुद ही खोला 
खुद ही 
गिराया जाता है 

खुद छाप लेता है 
रात को 
अखबार अपना 

सुबह 
खुद ही पढ़ने 
बिना नागा 
आया जाता है 

अपनी खबर 
आसानी से छपने की 
खबर मिलती है 

कितने लोग 
किस खबर 
को
ढूँढने 

कब निकलते है

बस यही अंदाज 
यहाँ
नहीं लगाया 
जाता है 

जो भी है 
बस लाजवाब है 
चिट्ठों की दुनियाँ

‘उलूक’ 
अपनी लिखी किताब
खुद बाँचना

यहाँ के अलावा 
कहीं और
नहीं 
सिखाया जाता है । 

“ हैप्पी ब्लॉगिंग” 

चित्र साभार: Dreamstime.com

शुक्रवार, 30 जून 2017

बुरा हैड अच्छा टेल अच्छा हैड बुरा टेल अपने अपने सिक्कों के अपने अपने खेल

           
              चिट्ठाकार दिवस की शुभकामनाएं ।


आधा
पूरा 
हो चुके 


साल
के 
अंतिम दिन 

यानि

ठीक 
बीच में 

ना इधर 
ना उधर 

सन्तुलन 
बनाते हुऐ 

कोशिश 
जारी है 

बात
को 
खींच तान 
कर

लम्बा 
कर ले 
जाने
की 

हमेशा 
की
तरह 

आदतन 

मानकर

अच्छी
और 
संतुलित सोच 
के
लोगों को 

छेड़ने
के लिये 
बहुत जरूरी है 

थोड़ी सी 
हिम्मत कर 

फैला देना 
उस
सोच को 

जिसपर 

निकल
कर 
आ जायें 

उन बातों 
के
पर 

जिनका 
असलियत 
से

कभी 
भी कोई 
दूर दूर 
तक
का 
नाता रिश्ता 
नहीं हो 

बस

सोच 
उड़ती हुई 
दिखे 

और 
लोग दिखें 

दूर 
आसमान 
में कहीं 

अपनी
नजरें 
गढ़ाये हुऐ 

अच्छी
उड़ती हुई
इसी 
चीज पर 

बंद
मुखौटों 
के
पीछे से 

गरदन तक 
भरी

सही 
सोच को 

सामने लाने 
के
लिये ही

बहुत
जरूरी है 

गलत
सोच के 

मुद्दे

सामने 
ले कर
आना 

डुगडुगी
बजाना 

बेशर्मी के साथ 

शरम
का 
लिहाज 
करने वाले 

कभी कभी 

बमुश्किल 
निकल कर 
आते हैं
खुले में

उलूक’ 

सौ सुनारी 
गलत बातों
पर 

अपनी अच्छी 
सोच
की 

लुहारी
चोट 
मारने
के
लिये।

मंगलवार, 27 जून 2017

पुराना लिखा मिटाने के लिये नया लिखा दिखाना जरूरी होता है

लगातार
कई बरसों तक
सोये हुऐ पन्नों पर
नींद लिखते रहने से
 शब्दों में उकेरे हुऐ
सपने उभर कर
नहीं आ जाते हैं

ना नींद
लिखी जाती है
ना पन्ने उठ
पाते हैं नींद से

खुली आँख से
आँखें फाड़ कर
देखते देखते
आदत पढ़ जाती है
नहीं देखने की
वो सब
जो बहुत
साफ साफ
दिखाई देता है

खेल के नियम
खेल से ज्यादा
महत्वपूर्ण होते हैं

नदी के किनारे से
चलते समय के
आभास अलग होते हैं

बीच धारा में पहुँच कर
अन्दाज हो जाता है

चप्पू नदी के
हिसाब से चलाने से
नावें डूब जाती हैं

बात रखनी
पड़ती है
सहयात्रियों की

और
सोच लेना होता है
नदी सड़क है
नाव बैलगाड़ी 
है 
और
यही जीवन है

किताबों में
लिखी इबारतें
जब नजरों से
छुपाना शुरु
कर दें उसके
अर्थों को

समझ लेना
जरूरी हो
जाता है

मोक्ष पाने
के रास्ते का
द्वार कहीं
आसपास है

रोज लिखने
की आदत
सबसे
अच्छी होती है

कोई ज्यादा
ध्यान नहीं
देता है
मानकर कि
लिखता है
रहने दिया जाये

कभी कभी
लिखने से
मील के पत्थर
जैसे गड़ जाते हैं

सफेद पन्ने
काली लकीरें
पोते हुऐ जैसे
उनींदे से

ना खुद
सो पाते हैं
ना सोने देते हैं

‘उलूक’
बड़बड़ाते
रहना अच्छा है

बीच बीच में
चुप हो जाने से
मतलब समझ में
आने लगता है
कहे गये का
होशियार लोगों को

पन्नो को नींद
आनी जरूरी है
लिखे हुऐ को भी
और लिखने वाले
का सो जाना
सोने में सुहागा होता है ।

चित्र साभार: Science ABC

गुरुवार, 22 जून 2017

हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी सबसे अलग होती है ये बहुत ही साफ बात है

हिन्दी में
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
पढ़ लेना
अलग बात है

हिन्दी
समझ लेना
अलग बात है

हिन्दी
भाषा का
अलग प्रश्न
पत्र होता है

साहित्यिक
हिन्दी
अलग बात है

हिन्दी
क्षेत्र की
क्षेत्रीय भाषायें

हिन्दी
पढ़ने
समझने
वाले ही

समझ
सकते हैं
समझा
सकते हैं

ये सबसे
महत्वपूर्ण

समझने
वाली बात है

हिन्दी बोलने
लिखने वाले
हिन्दी में लिख
सकते हैं

किस लिये
हिन्दी में
लिख रहे हैं

हिन्दी
की डिग्री
रखे हुऐ
लोग ही
पूछ सकते हैं

हिन्दी
के भी कभी
अच्छे दिन
आ सकते हैं

कब आयेंगे
ये तो बस
हिन्दी की
डिग्री लिये
हुऐ लोग ही
बता सकते हैं

भूगोल
से पास
किये लोग

कैसे
हिन्दी की
कविता बना
सकते है

कानून
बनना
बहुत जरूरी है

कौन सी
हिन्दी

कौन
कौन लोग
खा सकते हैं
पचा सकते हैं

नेताओं की
हिन्दी अलग
हिन्दी होती है

कानूनी
हिन्दी
समझने की
अलग ही
किताब होती है

‘उलूक’
तू किस लिये
सर फोड़ रहा है
हिन्दी के पीछे

तेरी हिन्दी
समझने वाले
हैं तो सही

कुछ तेरे
अपने ही हैं

कुछ
तेरे ही हैं
आस पास हैं

और
बाकी
बचे कुछ
क्या हुआ

अगर बस
आठ पास हैं

हिन्दी को
बचा सकते हैं
जो लोग

वो
बहुत
खास हैं
खास खास हैं।


चित्र साभार: Pixabay

सोमवार, 19 जून 2017

बे सिर पैर की उड़ाते उड़ाते यूँ ही कुछ उड़ाने का नशा हो जाता है

सबके पास
होती हैं
कहानियाँ
कुछ पूरी
कुछ अधूरी

अपंग
कहानियाँ
दबी होती है
पूरी कहानियोँ
के ढेर के नीचे

कलेजा
बड़ा होना
जरूरी
होता है
हनुमान जी
की तरह
चीर कर
दिखाने
के लिये

आँखे
सबकी
देखती हैं
छाँट छाँट
कर कतरने
कहानियोँ
के ढेर
में अपने
इसके उसके

कुछ
कहानियाँ
पैदा होती हैं
खुद ही
लकुआग्रस्त

नहीं चाहती हैं
शामिल होना
कहानियों
के ढेर में
संकोचवश

इच्छायें
आशायें
रंगीन
नहीं भी सही
काली नहीं
होना चाहती हैं

अच्छा होता है
धो पोछ कर
पेश कर देना
कहानियोँ को
कतरने बिखेरते
हुऐ सारी
इधर उधर

कहानियों की
भीड़ में छुपी
लंगडी
कहानियाँ
दिखायी ही
नहीं देती
के बहाने से
अपंंग
कहानियों से
किनारा करना
आसान हो जाता है

‘उलूक’
कहानियों
के ढेर से
एक लंगड़ी
कहानी
उठा कर
दिखाने वाला
जानता है

कहानियाँ
बेचने वाला
ऐसे हर
समय में

दूसरी तरफ
की गली से
होता हुआ
किसी और
मोहल्ले की ओर
निकल जाता है।

चित्र साभार: https://es.123rf.com